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पुरी जगन्नाथ धाम इतिहास व कथा Puri Jagannath Dham History Story in Hindi

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20 Min Read
पुरी जगन्नाथ धाम इतिहास व कथा Puri Jagannath Dham History Story in Hindi
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पुरी जगन्नाथ धाम इतिहास व कथा Puri Jagannath Dham History Story in Hindi

Contents
पुरी जगन्नाथ धाम इतिहास व कथा Puri Jagannath Dham History Story in Hindiजगन्नाथ भगवान की कहानी Story of Lord Jagannath in Hindi (Lord Kalia/Krishna Katha)जगन्नाथ पुरी धाम इतिहास History of Puri Jagannath Dham in Hindiश्री क्षेत्र Sri Kshetra

यह मंदिर विष्णु जी के आंठवे अवतार श्री कृष्ण जी को समर्पित है। पुराणों में इस स्थान को धरती का वैकुण्ठ कहा गया है। इस मंदिर का प्रमाण महाभारत के वर्ण पर्व में मिलता है।

पढ़ें: पूरी रथ यात्रा की पूर्ण जानकारी

पुरी जगन्नाथ धाम इतिहास व कथा Puri Jagannath Dham History Story in Hindi

जगन्नाथ भगवान की कहानी Story of Lord Jagannath in Hindi (Lord Kalia/Krishna Katha)

एक बार की बात है श्री कृष्ण जी निद्रावस्था में थे और अचानक उनके मुँह से ‘राधे‘ शब्द निकला। आस – पास उपस्थित पटरानियों ने यह शब्द सुना और आपस में बात करने लगीं। वे कहने लगी कि हम सब तो प्रभु की कितनी सेवा करते हैं फिर भी उनके मुँह से ‘राधे‘ शब्द निकला। इसका मतलब यह है कि वे राधा जी को याद करते है इसीलिए उन्हें सदा उनका की स्मरण रहता है।

उन सभी के मन में एक जैसा विचार उठा कि राधा जी किस प्रकार कृष्ण जी को अपना प्रेम प्रदर्शित करतीं होंगी। प्रभु और राधा जी के बीच प्रेम का कैसा रिश्ता था? सभी को ये जानने की जिज्ञासा हुई। लेकिन जाने भीं तो किससे। तब उन सभी को लगा कि इस बात को तो सिर्फ हमारी सास रोहिणी माता बता सकतीं हैं।

क्यों न उनके पास चलें? वे रोहिणी माता के पास गयीं और बोली कि प्रभु और राधा जी के प्रेम के विषय में बताइये। तब रोहिणी माता ने कहा कि मैं इस विषय को बता तो दूंगी लेकिन कृष्ण और बलराम को जरा भी पता न चलने देना। अगर इस बात की खबर उन दोनों को लग गयी तो वे पुनः ब्रज चले जायेंगे। तुम सब उन्हें रोक भी नहीं पाओगी और द्वारकापुरी कौन संभालेगा।

तब तय हुआ कि प्रभु की बाल – लीलाओं और राधा जी के बारे में सुनने के लिए एक एकांत स्थान चुना जाये और बाहर कोई न कोई पहरा दे। तब सुभद्रा जी बाहर पहरा देने लगीं। कथा सुनना आरम्भ किया गया। उन्होंने कृष्ण जी की बाल लीलाओं के बारे में बताया, ऐसा लग रहा था कि सचमुच यह सब सामने हो रहा हो।

उनकी बाल-लीलाओं के बारे में सुनकर सुभद्रा जी खो गयीं और उन्हें होश न रहा। कुछ देर बाद श्री कृष्ण और बलराम भी वहां आ गए। उन्होंने द्वार पर बेसुध खड़ी सुभद्रा को देखा। फिर वे दोनों भी बाहर चुपचाप खड़े होकर बाल – लीलाओं को सुनकर आनंद लेने लगे।

श्री कृष्ण जी की बाल – लीलाओं का सभी के हृदय पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि सब भाव – विभोर हो उठे। सब एक जगह पर स्थित हो गए। तभी अचानक नारदजी वहां उपस्थित हो गए और उस दृश्य को देखकर कुछ कह न सके और वे भी श्री कृष्ण जी की बाल्यावस्था की कहानियां सुनकर अपनी सुध खो बैठे।

सभी बेसुध थे, तभी अचानक नारद जी को होश आया और उन्होंने श्री कृष्ण जी से कहा कि हे प्रभु ! मैंने आज आपके बचपन काल के दर्शन किये, मैं चाहता हूँ कि इस सुन्दर दृश्य के दर्शन पृथ्वी लोक पर सभी भक्तों को मिलें।

आप सदा के लिए यहाँ निवास कीजिये। तब भगवान श्री कृष्ण जी अति प्रसन्न हुए और बोले ‘तथास्तुः ! मैं अपने इसी रूप को प्रकट करूँगा लेकिन आपको इसकी प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

तब नारदजी ने कौतूहलवश पूछा कि वह कौन भाग्यशाली होगा जिसे आप दर्शन देंगे। मैं यह जानने के लिए अति व्याकुल हो रहा हूँ। तब श्री कृष्ण ने कहा कि मालवराज इंद्रयुम्न मेरी मूर्ति की स्थापना श्री क्षेत्र में करवाएंगे। मैं वहीँ दर्शन दूंगा। ऐसा जानकार नारद जी वापस चले गए।

जगन्नाथ पुरी धाम इतिहास History of Puri Jagannath Dham in Hindi

राजा इंद्रयुम्न एक बार ऋषियों के सत्संग में पहुंचे, राजा ने कहा कि आप सभी महा ज्ञानी हैं, मुझे कोई एक ऐसा क्षेत्र बताइये जहाँ जाने से मनुष्यों के सारे पाप नष्ट हो जाते हो। तब एक वृद्ध संत ने कहा कि आप श्री क्षेत्र जाइये, वहां आपको साक्षात नारायण जी के दर्शन होंगे। वहां समस्त देवतागण भगवान के दर्शन करने आते हैं।

वहीँ पर स्थित रोहिणी कुंड के पास एक कल्पवृक्ष है वहां स्नान करने से भक्तगण पाप मुक्त होते हैं। सब आश्चर्यचकित हो उठे। तब उन संत ने आगे की कथा बताई। एक बार की बात है, एक कौवा उस जल में जाकर क्रीड़ा करने लगा, जल में स्पर्श होते ही वह नीच योनि वाला जानवर पवित्र हो गया। हे राजा इंद्रयुम्न ! आपको उस स्थान पर अवश्य ही जाना चाहिए।

उस संत ने उस पवित्र क्षेत्र की महिमा बखान की जिसे सुनकर राजा से रहा नहीं गया और वे दर्शन करने वहां पहुँच गए और भगवान से प्रार्थना की कि हे प्रभु ! आप मुझे अपने दर्शन दीजिये, मैं अत्यंत व्याकुल हो रहा हूँ, अगर मैंने पूरी श्रद्धा से प्रजापालन किया हो, आपके प्रति सच्ची भक्ति हो तो आप मुझे अपने दर्शन दीजिये, नहीं तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगा।

ऐसा कहते हुए वे बेसुध हो गए और उन्हें एक स्वप्न आया कि तुम निराश मत हो, तुम्हे विशेष काम के लिए चुना गया है, अर्थात नीलमाधव  (कृष्ण जी ) की खोज करते रहो, देवतागण तुम्हारी सहायता करते रहेंगे। तुम एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाना शुरू करो, समय आने पर नीलकंठ के दर्शन भी तुम्हे अवश्य होंगे। राजा को होश आया और इस बात के बारे में उसने राजसभा को बताया और मंदिर का शुभ निर्माण तुरंत कराया जाये ऐसा आदेश दिया।

तब शुभ मुहूर्त के अनुसार और विधि-विधान से मंदिर की स्थापना सागरतट यानी की पूरी, ओडिशा, भारत में कराई गयी। लेकिन मूर्ति की स्थापना कैसे होगी इसके बारे में राजा को नहीं पता था। ऐसा सोचते हुए वे अत्यंत निराश हुए और भगवान से विनती की कि आगे का रास्ता बताइये।

तब उसी रात राजा को एक स्वप्न आया कि राजन ! यहाँ आस – पास ही श्री कृष्ण जी का विग्रह रूप है, उसे खोजने की कोशिश कीजिये, तुम्हे दर्शन अवश्य मिलेंगे। श्री कृष्ण के इस विग्रह स्वरुप की खोज के लिए चार विद्वान पंडितों को लगा दिया गया। विद्यापति पंडित ने वह स्थान खोज लिया क्योंकि वहां वाद्य यंत्रों से मधुर ध्वनि हो रही थी।

वे भगवान के स्मरण में खोये हुए थे तभी उन्होंने देखा कि एक बाघ सामने से चला आ रहा है और वे ऐसा देखकर बेहोश हो गए। तब वहां एक सुन्दर स्त्री की आवाज़ आयी , उसने बाघ को पुकारा और बाघ उसके पास चला गया। वह सुन्दर स्त्री भीलों के राजा विश्वावसु की इकलौती पुत्री ललिता थी।

विद्यापति को जल पिलाया गया, वे होश में आ गए और देखकर आश्चर्यचकित हो उठे। ललिता ने कहा कि आप इस वन में कैसे पहुंचे, मैं आपकी सहायता कर सकती हूँ। तब विद्यापति, विशवावसु से मिले और बताया कि मैं श्री कृष्ण का भक्त हूँ, वे अपना पूरा परिचय नहीं बताना चाह रहे थे। भीलों के राजा विश्वावसु के अनुरोध करने पर विद्यापति को वहां रुकना पड़ गया।

वे भीलों को ज्ञान और उपदेश देने लगे। ललिता के मन में विद्यापति के प्रति प्रेम उत्पन्न हो गया। यह बात विद्यापति ने भांप ली लेकिन नज़रअंदाज़ कर दी क्योंकि उन्हें अपना उद्देश्य पूरा करना था। एक बार विद्यापति बीमार हो गए और ललिता ने उनकी बहुत सेवा की जिससे विद्यापति के हृदय में भी ललिता के लिए प्रेम जाग गया। यह बात विश्वावसु ने जान ली, तब उन्हें लगा कि दोनों का विवाह करा देना चाहिए। विवाह संपन्न हुआ। लेकिन विद्यापति का उद्देश्य अभी पूरा नहीं हुआ था।

विद्यापति को पता चला कि विश्वावसु रोज नियम से कहीं जाता है और सूर्योदय के बाद ही आता है। उसने इस बात का पता लगाने की सोची और ललिता से पूछा, लेकिन ललिता इस बात को नहीं बताना चाहती थी क्योंकि यह बात उसकी वंश की परंपरा से जुड़ी हुई थी। बाद में ललिता ने कहा कि यह बात मैं आपको बता सकती हूँ क्योंकि आप अब मेरे कुल से जुड़ चुके हैं, यहाँ से कुछ दूरी पर एक गुफा है, वहां हमारे कुलदेवता हैं, उन्ही की पूजा के लिए पिता जी वहां जाते हैं।

विद्यापति उस मंदिर के दर्शन करना चाहते थे, उसने ललिता से दर्शन के लिए कहा, तब ललिता ने पिता जी से सब बात बताई, लेकिन पिता जी उस रहस्य को बताना नहीं चाह रहे थे, तब विद्यापति ने विश्वास दिलाया कि आपके बाद मैं ही तो हूँ जो नित्य पूजा करूँगा।

तब उन्होंने रहस्य बताना शुरू किया। हमारे भगवान की मूर्ति अत्यंत आकर्षक है, जो कोई भी देखता है बस अपने साथ ले जाना चाहता है, देवताओं ने बताया था कि आने वाले समय में कोई राजा हमारी इस मूर्ति को ले जाकर कहीं और स्थापित करेंगे।

कहीं ऐसा समय न आ गया हो, इस डर से हम तुम्हे दर्शन नहीं कराना चाहते थे, लेकिन अब तुम हमारे कुल के सदस्य हो इसिलए दर्शन कराऊंगा, लेकिन तुम्हारी आँखों पे पट्टी बाँध कर ले जाऊंगा। विद्यापति मन ही मन प्रसन्न हुए क्योंकि उनका लक्ष्य लगभग पूरा होने को था। उन्होंने मूर्ति ले जाने के लिए एक चाल चली।

आँखों में पट्टी बांध दी गयी लेकिन विद्यापति ने अपने बाएं हाथ में सरसों के दाने ले लिए थे जिसे वे रास्ते में थोड़ा-थोड़ा गिराते चले गए थे। वे गुफा के सम्मुख पहुंचे, वहां से नीला प्रकाश चमक रहा था। अंदर जाके उन्होंने साक्षात् कृष्ण जी भगवान के इस दिव्य स्वरुप के दर्शन किये। वे भाव-विभोर हो उठे। उन्होंने भगवान से प्रार्थना की। पुनः आँखों पे पट्टी बांधकर विद्यापति को घर वापस लाया गया।

अगली सुबह विद्यापति ने ललिता से कहा कि उसे अपने माता-पिता की चिंता हो रही है अर्थात वह आज ही उनसे मिलने जायेगा। ललिता मान गयी। वद्यापति गुफा की ओर मूर्ति चुराने के लिए चल दिया, जहाँ – जहाँ सरसों के दाने थे वहां पौधे उग आये थे, उसी रस्ते पर चल दिया, मंदिर में श्री कृष्ण के दर्शन किये और क्षमा मांगी और मूर्ति उठा कर घोड़े पर रख कर चल दिया।

वह राजा के पास पहुंचा, राजा मूर्ति को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए। राजा को स्वप्न आया था कि सागर में बहती हुई एक लकड़ी का कुंडा तुम्हे मिलगा जिसपे नक्कासी करवा कर भगवान बनवा लेना। तब राजा ने विद्यापति से कहा कि लकड़ी की मूर्ति बन जाने पर  तुम यह मूर्ति अपने ससुर को वापस दे देना।

अगले दिन सब सागर से लकड़ी लेने गए, उस लकड़ी को जैसे ही खींचने लगे,  वे लकड़ी उठा ही नहीं पा रहे थे । तब राजा कारण जान गया। राजा ने कहा कि आजतक जो इस मूर्ति की पूजा करता आ रहा है उसका स्पर्श इस लकड़ी को होना जरुरी है।

हम लोगों को तुरंत विश्वावसु से क्षमा मांगने चलना चाहिए। उधर विश्वावसु अपनी दिनचर्या के अनुसार गुफा में पूजा करने को निकला लेकिन मूर्ति न पाकर समझ गया कि यह काम उसके दामाद का ही है।

वे बहुत रोये। एक दिन बीत गया। वे सुबह फिर गुफा की तरफ गए, उसी स्थान पर हाथ जोड़कर रोने लगे, इतने में आवाज़ आयी कि विद्यापति कोई राजा इंद्रयुम्न के साथ पधार रहे हैं। विश्वावसु गुफा से बहार आये तब इंद्रयुम्न ने उन्हें गले लगा लिया और बोले कि तुम्हारी मूर्ति का चोर विद्यापति नहीं है, मैं हूँ।

राजा ने विश्वावसु को शुरू से लेकर अंत तक की सारी बात बताई। भगवान के आदेशानुसार इस रूप के दर्शन सभी को हों इसीलिए मुझे ऐसा करना पड़ रहा है, कृपया मेरी मदद कीजिये और भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा की  मूर्ति बनाने के लिए आये हुए उस लकड़ी के कुंडे को उठवाने में मदद कीजिये। क्योंकि जब आप उस लकड़ी को स्पर्श करोगे तभी उसका भार कम होगा। विश्वावसु तैयार हो गए और सागर से लकड़ी उठा लाये।

राजा ने वह लकड़ी मूर्तिकारों और शिल्पकारों को सौंप दी, लेकिन शिल्पकारों को केवल पत्थर की मूर्तियां बनाना आती थी, लकड़ी की मूर्ति उन्होंने कभी नहीं बनायीं थी। एक और समस्या आने पर राजा चिंतित हुए। तब उन्हें स्मरण हुआ कि कोई महान शिल्पकार आएंगे वे मूर्ति बनाएंगे।

अगली सुबह सभा में कोई वृद्ध व्यक्ति आया उसने कहा कि मैं जानता हूँ कि कौनसी मूर्ति स्थापित करनी चाहिए। तब राजा ने पूछा कि मूर्ति बनेगी कैसी? तब वृद्ध ने कहा कि यह कार्य मुझ पर छोड़ दो, लेकिन मुझे एकांत स्थान चाहिए, मैं इस कार्य में कोई बाधा नहीं चाहता हूँ, मैं यह मूर्ति निर्माण एक बंद कमरे में करूँगा, मूर्ति बनने पर मैं स्वयं दरवाजा खोल दूंगा।

उस कमरे के अंदर कोई भी व्यक्ति नहीं आना चाहिए। आप सभी बाहर संगीत बजा सकते हैं जिससे मेरे औजारों की आवाज़ बाहर तक ना आये। यह मूर्ति का कार्य 21 दिनों तक चलेगा, तब तक मैं ना कुछ खाऊंगा ना पिऊंगा।

रोज सब अपने कानों को दरवाज़ों पर लगा लेते थे और औजारों की आवाज़ सुना करते थे। लेकिन अचानक 15 वें दिन आवाज़ आना बंद हो गयी। रानी गुंडिचा चिंतित हो गयीं कि कहीं अनिष्ट तो नहीं हो गया अंदर। उन्होंने धक्का देकर दरवाज़ा खोल दिया और वृद्ध को दिया हुआ वचन टूट गया।

दरवाज़ा खुलते ही मूर्तिकार अदृश्य हो गया, मूर्ति अधूरी रह गयी। भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा के हाथ – पैर नहीं बन पाए थे। राजा और रानी रोने लगे। तब भगवान ने उनसे कहा कि तुम व्यर्थ ही चिंता करते हो, मूर्ति बनाने वाला वृद्ध स्वयं भगवान विश्वकर्मा जी थे।

जिन मूर्तियों को तुम अधूरा समझ रहे हो वास्तव में वैसी ही मूर्ति बननी थी। अब आगे क्या करना है ध्यान से सुनो, नीलांचल पर 100 कुएं बनवाओ, 100 यज्ञ करवाओ, कुओं के जल से मेरा अभिषेक करवाओ, उसके बाद स्थापना ब्रह्मदेव करेंगे। वहां पर नारद जी तुम्हे लेके जायेंगे।

राजा इंद्रयुम्न ने भगवान द्वारा बताई सारी विधि – विधान से यज्ञ आदि करवाया, तब नारद जी उन्हें लेकर ब्रह्मदेव के पास पहुंचे। वे ब्रह्मा जी से मिले और प्रणाम किया। ब्रह्मा जी ने कहा कि तुम आगे चलो मैं पीछे चलता हूँ। लेकिन धरती पर लौटते समय सब कुछ बदल चुका होगा। कई पीढ़ियां बीत चुकी होंगी। लेकिन तुम चिंतित मत होना। इंद्रयुम्न पृथ्वी पर वापस आया।

उस समय राजा गाला का राज्य हो चुका था। इंद्रयुम्न ने पूजा की तैयारी शुरू की। भगवान जी का कुंए के जल से अभिषेक हुआ, बाल स्वरुप होने पर भगवान जी को ठंडी लगने लगी। क्योंकि भगवान ने नारद जी से कहा था कि वह बाल रूप में स्थापित होंगे। भगवान जी की 15 दिनों तक देखभाल की गयी और फिर बाद में बलराम और सुभद्रा के पास जाकर स्वस्थ हुए।

ऐसा कहा जाता है कि विश्वावसु एक बहेलिये का वंशज था जिसने श्री कृष्ण की हत्या कर दी थी। विश्वावसु भगवान के अवशेषों की पूजा किया करता था जो मूर्ति के अंदर छुपी थी। ऐसा भी कहा जाता है कि आषाढ़ के अधिकमास होने पर भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा और सुदर्शन की नई मूर्ति बनाई जाती है और पुरानी मूर्ति को मंदिर प्रांगण में समाधी दे दी जाती है। इसे ‘नवकलेवरम‘ कहते हैं। ऐसा कहा जाता है कि पुजारी नई प्रतिमा आँखें बंद करके बनाते हैं।

श्री क्षेत्र Sri Kshetra

स्कंद-पुराण (उत्कल-खंडा) में यह उल्लेख किया गया है कि श्री क्षेत्र 10 योजनाओं (128 किमी या 80 मील) से अधिक क्षेत्र में फैला हुआ है और रेत से घिरा हुआ है। ओडिशा को उत्कल के नाम से भी जाना जाता है। उत्कल को चार भागों में बांटा गया है जो भगवान विष्णु के हथियारों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

इन चार क्षेत्रों को सांख्य-क्षेत्र (पुरी शहर), पद्म-क्षेत्र (कोणार्क), चक्र-क्षेत्र (भुवनेश्वर) और गाडा-क्षेत्र (जजापुरा, जहां विराजा देवी मंदिर है) के रूप में जाना जाता है। वास्तव में पूरी जगन्नाथ मंदिर एक अद्भुत स्थल है। दूर – दूर से भक्तगण इस मंदिर के दर्शन के लिए आते हैं। जो व्यक्ति यहाँ आते हैं साक्षात भगवान के दर्शन कर लेते हैं।

Featured Image –

By Abhishek Barua [CC BY-SA 3.0 (https://creativecommons.org/licenses/by-sa/3.0)], from Wikimedia Commons
Prabhu Prasad Tripathy –Creative Commons Attribution-ShareAlike 3.0 License. – from Wikimedia Commons

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