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Hindi Inspirational Stories - प्रेरणादायक कहानियां

निजामुद्दीन औलिया जीवनी व इतिहास History of Nizamuddin Auliya in Hindi

Moral Stories
6 Min Read
निजामुद्दीन औलिया जीवनी व इतिहास History of Nizamuddin Auliya in Hindi
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निजामुद्दीन औलिया जीवनी व इतिहास History of Nizamuddin Auliya in Hindi

हिंदुस्तान के दिल्ली शहर में कई पीरों, फकीरों और मज़हबी आलमी की आमद हुई, जिन्होंने हिंदुस्तान के लोगों को खुदा की इबादत के साथ साथ नेकी और आपसी रवादारी बनाए रखने के शिक्षा दी।

यही वजह है कि दिल्ली में कई ऐसे ही रूहानी शख्सियतों की मज़ार और दरगाहें मौजूद हैं, जहाँ सैकड़ों अक़दमंद लोग हर रोज़ हाज़िरी देने आते हैं। दिल्ली में दूसरे मुजाहिद से ताल्लुक रखने वाली भी कई ऐसे हस्तियाँ मौजूद हैं, जिनके लिए लोगों के दिलों में सदियों से एहतराम और मोहब्बत बरकरार है और आगे भी रहेगा।

ऐसा ही एक मुकद्दद मुकाम है, हज़रत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह। यहाँ हाज़िरी देने के लिए रोज़ सैकड़ों की तादात में बाबा के मुरीद आते हैं, जिनमें से ज्यादातर दिल्ली के बाहर के होते हैं। बाबा की मुरीदों में ना सिर्फ हिंदुस्तान के बल्कि विदेशों में रहने वाले हजारों लोग भी शामिल होते हैं।

निजामुद्दीन औलिया जीवनी व इतिहास History of Nizamuddin Auliya in Hindi

हज़रत निजामुद्दीन औलिया का पूरा नाम हज़रत ख्वाजा सैयद मोहम्मद निजामुद्दीन औलिया है। इनकी पैदाइश कब हुई इसके बारे में लोगों की राय एक जैसी नहीं है।

ऐसा माना जाता है कि निजामुद्दीन औलिया का जन्म 19 अक्टूबर सन् 1238 को बदायूँ में हुआ था जबकि कुछ लोगों का मानना है कि उनका जन्म सन् 1233 को तथा कुछ का मानना है कि सन् 1236 को हुआ था। इनके पिता जी का नाम हज़रत सैयद अहमद बुख़ारी था।

कहा जाता है कि इन्होंने अपनी जन्म के तुरंत बाद इस्लामिक कलमा पढ़ा था। इनकी माता का नाम बीबी जुलेखा था, जो एक पाक औरत थी और अपना सारा वक्त खुदा की इबादत में लगाती थी। बीबी जुलेखा बदायूँ के ख्वाजा और बुखारी की पुत्री थी।

सुल्तान शमसुद्दीन अल्तमश के दौर में इनके बुजुर्ग बुख़ारी से हिंदुस्तान आ गए। लाहौर में कुछ समय ठहरने के बाद वह बदायूँ आ गए और सदा के लिए यही बस गए। उस दौर में बदायूँ को मदीनात उल औलिया कहा जाता था और यह इस्लामी शिक्षा हासिल करने का एक अहम स्थान बन चुका था।

यही नहीं सूफी और संतों के लिए भी यह स्थान खास अहमियत रखता था। निजामुद्दीन औलिया जब सिर्फ 5 वर्ष के हुए तो इनके पिता का साया उनके सर से उठ गया। इनकी माता बीवी जुलेखा, जो कि खुद एक शिक्षिका थी।

उन्होंने इन्हें  इस्लामिक तालीम के लिए मौलाना अलाउद्दीन असूली को सौंप दिया। इसके बाद हज़रत अली मौला बुजुर्ग बदायूँनी के हाथों दस्ता-रे फ़ज़ीहत हासिल की। उस वक्त अली मौला ने कहा था कि निजामुद्दीन ख़ुदा के अलावा किसी के भी आगे सर नहीं झुकाएगा। हज़रत निजामुद्दीन 20 साल के हुए तो अपनी माता और बड़ी बहन को साथ लेकर दिल्ली आ गए।

कुछ वर्ष बाद निजामुद्दीन अजोधर चले गए। जो आज पाकपट्टन शरीफ, पाकिस्तान में स्थित है। जहाँ उनकी मुलाकात रूहानी ताकत के मालिक और आला दर्जे के आलिम बाबा फरुद्द्दीन से हुई।

बाबा फरुद्द्दीन ने जरूरी शिक्षा देने के बाद इन्हें एक ख़िलाफत नामा दिया गया और दिल्ली जाने के लिए कहा गया। निजामुद्दीन औलिया वापस आ गए और अपने आखिरी वक्त तक दिल्ली में ही रहकर ख़ुदा की इबादत व लोगों की खिदमत करते रहे।

बाद में इस जगह का नाम ही निजामुद्दीन पड़ गया, जो आज तक है। उन्होंने लोगों को आपसी मोहब्बत नेकी और ईमानदारी करने की तालीम दी। उनका कहना था कि, दुनिया का हर इंसान खुदा का ही बनाया हुआ है और इसलिए इंसान से मोहब्बत ही सही मायनों में ख़ुदा से मोहब्बत है।

बाबा निजामुद्दीन औलिया शमा यानी कव्वाली के बहुत शौकीन थे, यही वजह है कि मौसिकी में कव्वाली के फन को तशकील देने वाले मशहूर और मकबूल सूफ़ी शायर अमीर खुसरो उनके मुरीद भी थे और दोस्त भी थे।

अमीर खुसरो बाबा के चहेतों में से एक थे। शायद इसी वजह से उनकी मज़ार स्थित बाबा की दरगाहके पास में ही बनाई गई है। इस दरगाह को संगमरमर पत्थर से बना गया है। इसके संगमरमरी गुम्बद पर काले रंग की लकीरें हैं। मक़बरा चारों मेहराबों से घिरा है, जो झिलमिलाती चादरों से ढकी रहती हैं। यह इस्लामिक वास्तुकला का एक उदाहरण है।

हज़रत निजामुद्दीन औलिया अपने पूरे जीवन काल में सिर्फ मानव प्रेम को ही प्रचार किया है। उन्होंने लोगों को सांसारिक बन्धनों से मुक्त होने की शिक्षा दी। उनके शिष्यों में सभी वर्ग एवं क्षेत्र के लोग शामिल थे। इनकी मृत्यु 3 अप्रैल 1325 को इनकी ही दरगाह “निज़ामुद्दीन दरगाह” जो दिल्ली में स्थित है, में हुई थी। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के निधन के पश्चात पूरा जनमानस शोक संतप्त हो गया।

आज भले ही निजामुद्दीन औलिया हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके द्वारा दिए गए उपदेश, मानव के प्रति प्रेम और सेवा भावना आदि गुणों के कारण लोग उन्हें महबूब-ए-इलाही का दर्जा देते हैं। आज भी वे लोगों के बीच सुल्तान-उल-औलिया (संत सम्राट) के रूप में प्रसिद्ध है।

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