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नरेंद्र देव के घर में नियमित रूप से पूजा पाठ का प्रचलन था। इनकी माता धार्मिक प्रवृति की थी इसलिए इनके घर में रोजाना पुराण, रामायण, महाभारत की कथाएं होती रहती थी। कथावाचक इनके घर अक्सर आया करते थे इनके घर में समय-समय पर भजन और कीर्तन भी होता रहता था।
परिवार की इसी धार्मिक और आध्यात्मिक पर्यावरण के कारण बचपन से ही नरेंद्र का मन ईश्वर में लगने लगा था। उनके मन में ईश्वर को प्राप्त करने और उनके बारे में जानने की लालसा बढ़ने लगी थी। वे अपने माता-पिता एवं कथावाचकों से प्रश्न पूछा करते थे जिससे वे लोग उनके प्रश्न को सुनकर अचंभित हो जाते थे।
सन् 1871 में 8 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र ने ईश्वर चंद्र विद्यासागर स्कूल के मेट्रोपॉलिटन संस्थान में पढ़ने हेतु दाखिला लिया और कुछ समय पढ़ने के बाद सन् 1877 में इनका परिवार रायपुर चला गया। यह पढ़ने में निपुण थे तथा यह एक ऐसे छात्र थे जिन्होंने प्रेसिडेंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था।
नरेंद्र सामाजिक विज्ञान, इतिहास, साहित्य, दर्शन, धर्म और कला सभी विषयों को उत्सुकता से पढ़ते थे। इनको हिंदू शास्त्रों में अत्यधिक रुचि थी। सन् 1881 में उन्होंने रामकृष्ण परमहंस से भेंट की। सन् 1881 में ही इन्होंने ललित कला की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद सन् 1884 में कला से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। पश्चिमी दार्शनिकों के अध्ययन के साथ इन्होंने संस्कृत ग्रंथों और बंगाली साहित्य को भी सीखा था।
नरेंद्र, रामकृष्ण परमहंस से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने उनको अपना गुरु मान लिया। वह अपने गुरु की देखभाल एवं सेवा करते थे। रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र को अपना तेज देकर नरेंद्र से उनको विवेकानंद बना दिया। इनके गुरु सन् 1885 में बीमार हो गये तब उन्होंने अपने गुरु की बहुत ही लगन के साथ सेवा की थी। 16 अगस्त सन् 1886 में रामकृष्ण परमहंस का निधन हो गया।
24 वर्ष की अवस्था में विवेकानंद ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिया उसके बाद वे विश्व भ्रमण के लिए पैदल ही निकल पड़े। विवेकानंद ने 31 मई सन् 1893 को अपनी यात्रा शुरू की। जापान के कई शहरों से होते हुए चीन, कनाडा होते हुए अमेरिका के शिकागो में जा पहुंचे।
शिकागो में विश्व धर्म परिषद हो रही थी स्वामी विवेकानंद उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुंचे। यूरोप और अमेरिका के लोग उस समय भारतवासियों को बहुत बुरी नजर से देखते थे इसीलिए उन्होंने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को उस परिषद में बोलने का मौका ना दिया जाए परंतु उनको किसी तरह उस परिषद में बोलने का मौका मिल गया।
स्वामी विवेकानंद ने जब भाषण देना शुरू किया, जिसको लोग सुनकर काफी प्रभावित हुए थे और उनके इस भाषण से उनको काफी सराहना भी मिली थी। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत एक ऐसा शब्द के साथ की थी जिसको सुनकर सारे अमेरिका वासी बहुत ही खुश हुए थे और इनको बहुत इज्जत देने लगे थे।
“मेरे अमेरिकी भाइयों बहनों
आपके इस जोरदार और स्नेह पूर्ण स्वागत से मेरा हृदय प्रफुल्लित हो गया है। मैं आपको दुनिया के सबसे प्राचीन धर्म की तरफ से धन्यवाद देता हूं, मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं मैं आपको सभी हिंदुओं की तरफ से आभार व्यक्त करता हूं। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म में हूं जिसने दुनिया को सहनशीलता एवं जरूरत पड़ने पर मदद की है। हम विश्व के सभी धर्म को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं जिसने इस धरती के सभी देश और धर्म से परेशान और सताये गये लोगों को शरण दी है।
भाइयों, मैं आपको एक पंक्तियां सुनाना चाहता हूं जो मैंने बचपन में स्मरण किया है और जो आज लाखों लोगों के द्वारा दोहराया जाता है – जिस तरह अलग-अलग स्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में जाकर एक समुद्र में गिरती है उसी तरह मनुष्य भी अपना अलग-अलग मार्ग चुनता है वह देखने में कितना भी कठिन, टेढ़ा मेढ़ा क्यों ना हो अंत मे वह जाकर भगवान तक ही पहुंचता है।
गीता में इस बात का प्रमाण बताया गया है जो भी मुझ तक आता है चाहे वह कैसा भी और किसी तरह हो, मैं उस तक पहुंचता हूं लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें आखिर में वह मुझ तक ही पहुंचते हैं।
सांप्रदायिकताएं और कट्टरताएं लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। यह धरती कितनी ही बार खून से लथपथ हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं।
अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नति कर रहा होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा। ”
विलियम हेस्टी जो महासभा संस्था के प्रिंसिपल थे, ने लिखा था- “नरेंद्र वास्तव में एक जीनीयस है, मैंने काफी विस्तृत और बड़े इलाकों में यात्रा की है लेकिन उनकी जैसी प्रतिभा वाला का एक भी बालक कहीं नहीं देखा, यहाँ तक की जर्मन विश्वविद्यालयों के दार्शनिक छात्रों में भी नहीं।”
4 वर्ष विदेशों में धर्म प्रचार करने के बाद स्वामी विवेकानंद भारत वापस लौटे तब इनका भव्य रूप से स्वागत किया गया, तब इन्होंने लोगों से कहा कि – वास्तविक शिव की पूजा निर्धन और दरिद्र की पूजा में है, रोगी और दुर्बल की सेवा में है। उन्होंने अध्यात्मवाद के प्रचार प्रसार के लिए रामकृष्ण मिशन की स्थापना की।
स्वामी विवेकानंद जी ने जीवन के अंतिम समय में शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा कि – “एक और विवेकानंद चाहिए यह समझने के लिए इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है”
विवेकानंद जी के शिष्यों के अनुसार जीवन के अंतिम दिन 4 जुलाई सन् 1902 में उन्होंने अपने ध्यान करने की दिनचर्या को भी नहीं बदला और ध्यान करने लगे। ध्यानावस्था में ही उन्होंने अपने शरीर का त्याग कर दिया और परमात्मा में लीन हो गए।
उनके शिष्यों ने उनका दाह संस्कार बेलूर में गंगा तट पर चंदन की लकड़ी पर किया। इसी गंगा तट के दूसरी और उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का भी दाह संस्कार हुआ था।
नके शिष्यों ने उनका दाह संस्कार बेलूर में गंगा तट पर चंदन की लकड़ी पर किया। इसी गंगा तट के दूसरी और उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का भी दाह संस्कार हुआ था।
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