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जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय Biography of Jaishankar Prasad in Hindi

Moral Stories
9 Min Read
जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय Biography of Jaishankar Prasad in Hindi
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इस लेख में हमने जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय (Biography of Jaishankar Prasad in Hindi) प्रकाशित किया है। उन्हें आधुनिक हिन्दी साहित्य जगत के बहुमुखी प्रतिभा के हिन्दी साहित्यकारों और कवियों में से एक माना जाता है। हिन्दी नाटक के क्षेत्र में भी उनका महान योगदान रहा है।

Contents
प्रारंभिक जीवनशिक्षाहिंदी साहित्य में रूचि की शुरुवातरचनाएंभाषा शैलीमृत्यु

उन्होंने नाटक, कहानी, उपन्यास तथा निबंध जैसी हिंदी साहित्य की विधाओं को एक ही समय पर अपनी प्रतिभा से प्रकाशित किया। जयशंकर प्रसाद जी हिंदी साहित्य के छायावादी युग के चार स्तंभों में से एक हैं, जिन्हें छायावादी युग को स्थापित करने का श्रेय प्राप्त है। आईये आपको उनकी जीवनी विस्तार में बताते हैं।

प्रारंभिक जीवन

जयशंकर प्रसाद जी का जन्म 30 जनवरी 1889 को उत्तरप्रदेश वाराणसी के काशी में हुआ था। इनके दादा जी का नाम शिव रतन साहू तथा पिता जी का नाम देवीप्रसाद था और इनके बड़े भाई का नाम शंभू रत्न था।

इनके दादा जी तथा पिताजी काशी में तंबाकू का व्यापार करते थे, जिसके कारण इनका परिवार पूरे काशी में सुंघनी साहू के नाम से प्रसिद्ध था। जयशंकर प्रसाद जी के दादाजी, भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त और बहुत ही दयालु व्यक्ति थे।

जो दान और धर्म में अधिक विश्वास रखते थे। इनके पिताजी भी बहुत ही उदार, दानी तथा साहित्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति थे। जयशंकर प्रसाद जी का बचपन बहुत ही सुख और समृद्धि से व्यतीत हुआ था। इन्होने अपने माता जी के साथ भारत के प्रमुख तीर्थ स्थलों का दर्शन भ्रमण किया था।

जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय विडियो

एक बार वे अपनी माता जी के साथ अमरकंटक की पहाड़ियों के बीच नर्मदा नदी में नौका विहार का आनंद लेने के लिए भी गए थे और इसी यात्रा से वापस लौटने के उपरांत इनके पिता का देहावसान हो गया और यह पिता के प्रेम से वंचित हो गए।

इसके पश्चात इनकी माता जी भी इस दर्द को सहन नहीं कर सकी और इनके पिता की मृत्यु के मात्र 4 वर्षों के पश्चात उन्होंने भी अपना देह रूप त्याग दिया। अब जयशंकर प्रसाद जी के सिर पर माता के प्रेम के आंचल की छांव भी नहीं बची।

अब इनके जीवन मे इनके बड़े भाई के अलावा और कोई नही था जो इनकी देखभाल कर सके। पिता की मृत्यु के बाद इनका तंबाकू के व्यापार को इनके बड़े भाई शंभू रतन जी देखने लगे थे।

लेकिन वे सही से व्यापार को नही सम्भाल सके और इनका व्यापार धीरे-धीरे घाटे में जाने लगा। अपने जीवन की इस कठिन और मुश्किल परिस्थितियों का सामना करते हुए भी जयशंकर प्रसाद के बड़े भाई शम्भूरत्न जी ने इनके पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा का उचित प्रबंध किया।

शिक्षा

प्रसाद जी की शिक्षा के लिए इनके बड़े भाई ने इनका दाखिला क्वीस कॉलेज नामक विद्यालय में कराया। लेकिन इनका मन विद्यालय की शिक्षा में नही लगा और इन्होंने विद्यालय छोड़ दिया तब इनके बड़े भाई ने इनकी शिक्षा का प्रबंध घर पर ही कर दिया। इस तरह इनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुयी ।

घर पर ही इन्होने दीनबंधु ब्रह्मचारी जैसे योग्य एवं अनुभवी शिक्षक के द्वारा संस्कृत का ज्ञान प्राप्त किया। संस्कृत के साथ ही साथ इन्होने अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू तथा फारसी का भी गहन अध्ययन किया। इन्होने वेद, पुराण, इतिहास तथा साहित्य शास्त्र का भी गहन अध्ययन किया था।

इनका झुकाव बचपन से ही हिंदी साहित्य के प्रति था क्योंकि इनके पिता भी एक साहित्य-प्रेमी व्यक्ति थे। अक्सर जब इन्हें मौका मिलता था तो यह साहित्य की पुस्तकों का अध्ययन करते थे और समय-समय पर कविता भी किया करते थे।

हिंदी साहित्य में रूचि की शुरुवात

वह बचपन से ही प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। ऐसा कहा जाता है कि इन्होने अपने बाल्यकाल में ही मात्र 9 वर्ष की अवस्था में, अपने गुरू ‘रसमय सिद्ध’ को ब्रज भाषा में ‘कलाधर’ नाम से एक सवैया लिखकर दिखाया था।

पहले तो इनके बड़े भाई इनकी काव्य रचना से खुश नहीं थे क्योंकि वह चाहते थे कि जयशंकर प्रसाद जी उनके पैतृक व्यवसाय का कार्य संभाल ले। परंतु बाद में जब उन्हें लगा कि इनकी रूचि साहित्य रचना की तरफ अधिक है तो उन्होंने जयशंकर प्रसाद जी को पूरी छूट दे दी।

अब प्रसाद जी पूरी तन्मयता के साथ काव्य एवं साहित्य रचना के क्षेत्र में आगे बढ़ने लगे। और इन्हीं दिनों इनके साथ एक बहुत दुखद घटना घटित हुई जिसमें इनके बड़े भाई शंभू रतन जी का भी स्वर्गवास हो गया। इससे जयशंकर प्रसाद जी को बहुत बड़ा धक्का लगा। और अब इनका व्यापार भी समाप्त हो गया था जिससे इनकी आर्थिक स्थिति बिगड़ गई।

इनके पिताजी ने अपने व्यापार की तरक्की के लिए उधार लिया था, जो उस समय नहीं चुका पाए थे। और अब लोगों ने जयशंकर प्रसाद जी से अपना उधार दिया हुआ पैसा वापस मांगने लगे तो जयशंकर प्रसाद जी ने लोगों का उधार चुकाने के लिए अपनी पैतृक संपत्ति को बेच दिया। अब ऐसा लग रहा था जैसे कि जयशंकर प्रसाद के जीवन में दुखों का पहाड़ टूट पड़ा हो।

रचनाएं

जयशंकर प्रसाद जी में साहित्य सृजन की अद्भुत तथा विलक्षण प्रतिभा थी। जिसके दम पर इन्होंने ‘आंसू’, ‘कामायनी’, ‘चित्राधार’, लहर, और झरना जैसी रचनाओं से हिंदी साहित्य के काव्य विधा को समृद्ध किया तथा ‘आंधी’, ‘इंद्रजाल’, ‘छाया’, ‘प्रतिध्वनी’ आदि कहानियां भी लिखी, और इसके साथ ही साथ ‘कंकाल’, ‘तितली’ और इरावती जैसे प्रसिद्ध उपन्यासों की भी रचना की।

शंकर प्रसाद जी ने अपने लेखन प्रतिभा के दम पर ‘सज्जन’, ‘जनमेजय का नाग यज्ञ’,  ‘चंद्रगुप्त’, ‘स्कंद गुप्त’ ‘अजातशत्रु, ‘प्रायश्चित’ आदि जैसे नाटकों की रचना कर हिंदी साहित्य के नाटक विधा को अलंकृत किया। नाटक के क्षेत्र में इन्होंने अनेक नए-नए प्रयोग किए और इनके इन्हीं नए प्रयोगों के परिणाम स्वरुप ही नाटक विधा में एक नए युग का सूत्रपात हुआ जिसे ‘प्रसाद युग’ कहा गया।

विषय वस्तु एवं शिल्प की दृष्टि से इन्होंने नाटक को एक नई दिशा प्रदान की। इनके नाटकों में भारतीय संस्कृति, राष्ट्रीय भावना तथा भारत के गौरवशाली इतिहास की झलक साफ-साफ दिखाई देती है।

जयशंकर प्रसाद जी ने ‘कामायनी’ जैसे महाकाव्य को सृजित करके हिंदी साहित्य को अमरत्व प्रदान कर दिया। जो इनकी कीर्ति का मूल आधार है। जयशंकर प्रसाद जी को उनकी रचना ‘कामायनी’ के लिए हिंदी साहित्य के पुरस्कार मंगला प्रसाद पारितोषिक सम्मान से विभूषित किया गया।

भाषा शैली

जयशंकर प्रसाद जी ने अपने काव्य रचना का प्रारंभ ब्रजभाषा से किया परंतु धीरे-धीरे खड़ी बोली को अपनाते हुए, इससे ही अपनी काव्य रचनाओं का अलंकरण किया। जयशंकर प्रसाद जी की रचनाओं में सृंगार संस्कृत के तत्सम शब्दो के साथ ही साथ संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग अधिक मिलता है। जबकी विदेशी शब्दों मुहावरे और लोकोक्तियां का प्रयोग उनकी रचनाओं में नगण्य है।

इन्होंने अपनी रचनाओं में विचारात्मक, अनुसंधानात्मक, इतिवृत्तात्मक, चित्रात्मक तथा भावात्मक भाषा शैली का प्रयोग किया है। भावात्मक शैली इनकी प्रमुख शैली है जिसे इनकी सभी रचनाओं में देखा जा सकता है। यह शैली बहुत ही सरल और मधुर होती है जिसमें स्थान स्थान पर काव्यात्मक शब्दों और कल्पनाओं का आकर्षक प्रतिबिंब मिलता है।

मृत्यु

अपने जीवन की कठिनाइयों और संघर्षों का सामना करते हुए वे अपने स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रख सके जिससे वे क्षय रोग से ग्रसित हो गए और मात्र 48 वर्ष की अवस्था में 15 नवंबर 1937 को इस संसार से विदा हो।

जयशंकर प्रसाद जी ने अपने जीवन के बहुत छोटे से कालखंड में हिंदी साहित्य में जो योगदान दिया वह हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है। प्रसाद जी का यह विलक्षण साहित्यिक योगदान हिंदी साहित्य के अनंत काल तक अविस्मरणीय रहेगा।

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